बिस्किट, साबुन और क्रीम आजादी से पहले का है इनका इतिहास
Saral Kisan - भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए बहुत से लोग मर गए। यह आंदोलन भी स्वदेशी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिसमें स्वदेशी उत्पादों का उपयोग करने के बजाय विदेशी उत्पादों का बहिष्कार किया गया था। हम आजादी की 76वीं वर्षगांठ पर आपको ऐसे कंज्यूमर उत्पादों के बारे में बताने जा रहे हैं जो अंग्रेजी उत्पादों से मुकाबला करते हैं। खास बात यह है कि आज भी ये उत्पाद उपलब्ध हैं और बहुत लोकप्रिय हैं।
इन उत्पादों में से एक बोरोलीन है (या हाथीवाला क्रीम, जिसे ग्रामीण लोगों ने पैकेट पर हाथी लोगो के नाम से जानते हैं) आजादी से पहले भारत में एक स्वदेशी व्यवसायी ने इस प्रसिद्ध क्रीम को ब्रिटिश उत्पादों से मुकाबला करने के लिए हरे रंग के पैकेट में लाया था। 1929 में देशवासियों के लिए बनाई गई स्वदेसी क्रीम बोरोलीन आज भी बहुत लोकप्रिय है। भारत में कभी विदेशी सामान आयात करने वाले गौर मोहन दत्ता ने बोरोलीन बनाया और स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा लेने का निर्णय लिया। 15 अगस्त 1947 को भारत की आजादी का जश्न मनाने के लिए एक लाख बोरोलीन क्रीम मुफ्त में दी गई। यहीं से अगला नाम आता है 'रूह अफ़ज़ा', जो गर्मी से राहत पाने के लिए जड़ी बूटियों का शर्बत था। हकीम हाफ़िज़ अब्दुल मजीद ने 1907 में Afza को पुरानी दिल्ली से शुरू किया।
आज भी रूह अफजा घर-घर में पाया जा सकता है। मैसूर सैंडल शॉप एक और प्रतिष्ठित ब्रांड है जो आजादी से पहले बनाया गया था। 1916 से, यह साबुन अंडे के आकार का है और हरे-लाल बॉक्स में है। इस सरकारी साबुन फैक्ट्री को मैसूर के राजा कृष्ण राजा वाडियार चतुर्थ ने बेंगलुरु में बनाया था।
अंत में, हम एक और लोकप्रिय ब्रांड, "पारले-जी" की चर्चा करेंगे। पीले पैकेट में छोटी-सी लड़की की तस्वीर वाली पैकेजिंग से मशहूर यह बिस्किट कई पीढ़ियों से जाना जाता है। मुंबई के व्यापारी मोहनलाल दयाल ने 1929 में स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर एक पुरानी फैक्ट्री खरीदकर बिस्किट और बेक सामानों का उत्पादन शुरू किया। भारतीयों के बजट को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने पारले-जी बिस्किट बनाए, जो आज भी बेचे जाते हैं।
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